जब अधर्म का बोलबाला हो जाता है धर्म का नाश होने लगता है सज्जन पीडा से तडप उठते है दुर्जन अतिचारी हो जाते है तो प्रकृति अपना सन्तुलन बनाने के लिये महापुरुष को पैदा करती है। वह राम के रूप मे हों कृष्ण के रूप में हो या अन्य किसी अवतार के रूप में हों। चार युग कही युग पर्यन्त नही है,चारो युग इसी शरीर मे इसी जीवन मे इसी संसार मे है। पिता खुद और आगे आने वाली पीढी धर्म रूपी सतयुग है,कुटुम्ब ननिहाल और पिता का राज्य द्वापर है,पत्नी परिवार छोटे बडे भाई बहिन आदि सभी त्रेता के युग के रूप मे है,माता और पिता का खानदान अधर्म मृत्यु तथा मोक्ष को प्राप्त करने का युग ही कलयुग है। कुंडली को देखने के बाद पता लगता है कि लगन पंचम और नवम भाव सतयुग की मीमांशा करते है,दूसरा छठा और दसवा भाव द्वापर युग की मीमांसा करते है तीसरा सातवा और ग्यारहवा भाव त्रेता युग की मीमांसा करते है,चौथा आठवा और बारहवा भाव कलयुग की मीमांसा करते है। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म द्वापर युग मे हुया था इसलिये जो भी कार्य व्यवहार समय आदि रहा वह सभी दूसरे भाव छठे भाव और दसवे भाव से सम्बन्धित रहा। शनिदेव का केतु के साथ इन्ही भावो मे होना श्रीकृष्ण भक्ति की तरफ़ जाने का इशारा करता है। देवकी माता के रूप मे और महाराज उग्रसेन पिता के रूप में,दूसरे भाव का शनि केतु माता के बडे भाई के रूप मे और दूसरे भाव का शनि केतु दत्त्क पुत्र की तरह से दूसरी जाति के अन्दर जाकर पालना होना। अष्टम राहु बारहवा राहु चौथा राहु तभी अपना काम राक्षस की तरह से करेगा जब शनि केतु दूसरे छठे या दसवे भाव मे अपना बल दे रहे होंगे। माता यशोदा की गोद चौथे भाव के लिये शनि केतु की मीमांसा करती है,शनि केतु का दूसरा प्रभाव यमुना जी के रूप मे भी मिलता है,शनि जो यम है और केतु जो यम की सहयोगी सूर्य पुत्री के रूप मे जानी जाती है। शनि काम करने वाले लोगो से और केतु को हल के रूप मे भी देखा जाता है शनि का रंग काला है और केतु का रूप बांसुरी से लेते है तो भी भगवान श्रीकृष्ण की छवि उजागर होती है। यही नही शनि मंत्र के उच्चारण के लिये जब शनि बीज मंत्र का रूप देखा जाता है तो "शँ" बीज भगवान श्रीकृष्ण की एक पैर मोड कर बांसुरी को बजाने के रूप मे दिखाई देता है। अगर इस बीज अक्षर को सजा दिया जाये भगवान श्रीकृष्ण का रूप ही प्रदर्शित होगा। आदिकाल से मूर्ति की पूजा नही की जाती थी यह तो ऋग्वेद से भी देखा जा सकता है बीज मंत्रो का बोलबाला था अग्नि वायु जल भूमि और इनके संयुक्त तत्वो को माना जाता था लेकिन इन्ही बीजो को सजाने के बाद जो रूप बना वह मूर्ति के रूप मे स्थापित किया जाने लगा और पत्थर धातु अथवा किसी भी अचल तत्व पर मूर्ति के रूप मे इन्ही बीजो को सजाया जाने लगा भावना से भगवान की उत्पत्ति हुयी और मूर्ति भी बीज अक्षर के रूप मे अपना असर दिखाने लगी।
मथुरा नगर को भगवान श्रीकृष्ण की जन्म स्थली माना जाता है। मथुरा के राजा उग्रसेन को जो श्रीकृष्ण के नाना थे उनके पुत्र कंस ने कैद मे डालकर अपने को बरजोरी राजा बना लिया था और अपने को लगातार बल से पूर्ण करने के लिये जो भी अनैतिक काम होते थे सभी को करने लगा था। प्रजा के ऊपर इतने कर लगा दिये थे कि प्रजा मे त्राहि त्राहि मची हुयी थी। जब कंस अपने बहनोई वासुदेव को और बहिन देवकी को लेकर रथ से जा रहा था तो आकाशवाणी हुयी कि जिस बहिन को तू इतने प्रेम से लेकर जा रहा है उसी के गर्भ से आठवी संतान उसकी मौत के रूप मे पैदा होगी। कंस ने रथ को वापस किया और वसुदेव और देवकी को कारागार मे डाल दिया,तथा उनकी सात सन्तानो को मार दिया था,आठवी संतान के रूप में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ जिस समय जन्म हुआ उस समय जो भी कारागार के दरवाजे प्रहरी आदि कंस ने देवकी और वसुदेव की सुरक्षा के लिये स्थापित किये थे सभी साधन निष्क्रिय हो अये और वसुदेव अपने हाल के जन्मे पुत्र को लेकर उनके मित्र नंद के घर छोड आये और उनकी पुत्री को वापस लाकर देवकी की गोद मे सुला दिया,कंस को जब पता लगा तो उसने उस कन्या को मारने के लिये जैसे ही पत्थर पर पटकना चाहा वह कन्या कंस के हाथ से छूट कर आसमान मे चली गयी और आर्या नाम की शक्ति के रूप में अद्रश्य बादलो की बिजली की तरह से अपना रूप लेकर बोली कि जो तेरी मौत का कारण है वह तो पैदा हो चुका है और बडे आराम से पाला भी जा रहा है,कंस ने इतना सुनकर आसपास के गांवो मे अपने दूत भेज दिये,जब पता लगा कि श्रीकृष्ण नन्द के घर मे यशोदा मैया की गोद मे पल रहे है तो कंस ने अपनी आसुरी शक्तियों को यशोदा के घर पूतना के रूप में बकासुर के रूप में और कितनी ही आसुरी शक्तियों को भेजा लेकिन श्रीकृष्ण भगवान का बाल भी बांका नही हुया। अपनी लीलाओ को दिखाते हुये उन्होने मथुरा की ब्रज भूमि को तपस्थली भूमि को बना दिया और अपनी शक्ति से अपने मामा कंस को मारकर अपने नाना को राजगद्दी पर बैठाकर अपने स्थान द्वारका की तरफ़ प्रस्थान कर गये।
मथुरा मे शनि केतु माता का घर था और कारागार कारागार का रूप भी राहु के रूप मे था,चौथे बारहवे और आठवे भाव का सीधा मिश्रण होने के कारण दूसरे भाव का असर भी शामिल था। वही शनि केतु नन्दगांव में यशोदा के द्वारा पाले जाने वाले भगवान श्रीकृष्ण का रूप था,चौथा भाव माता के साथ दूध और दूध के साधनो से भी जोड कर देखा जाता है। मथुरा नगर के उत्तर पूर्व मे यमुना नदी बहती है इस नदी का रूप भी श्यामल है,साथ ही यही शनि केतु राहु का रूप रखने के बाद यमुना मे कालिया नाग के रूप मे प्रकट हुआ जो भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा वश मे करने के बाद उसे क्षीर सागर मे भेज दिया। पूतना जो राक्षसी रूप मे थी वही अपने वक्ष पृष्ठ पर जहर लगाकर भगवान श्रीकृष्ण को दूध पिलाने आयी थी उसका दूध पीने के साथ साथ भगवान श्रीकृष्ण ने पूतना के प्राणो को भी पी लिया था। दूध और जहर दोनो राहु और चन्द्रमा की निशानी है। राहु चन्द्रमा के साथ मिलकर जहरीले दूध के लिये अपने रूप को प्रस्तुत करता है। उसी स्थान पर बकासुर जो बुध राहु के रूप मे अपना रूप लेकर भगवान श्रीकृष्ण की मौत लेकर आया था उसे भी भगवान श्रीकृष्ण ने शनि केतु की सहायता से मार गिराया था। राहु शुक्र का मिला हुआ रूप ही रासलीला के रूप मे जाना जाता है राहु जब सूर्य को आने कब्जे मे करता है कीर्ति का फ़ैलना होता है।
मथुरा नगर की सिंह राशि है यह राशि राज्य से सम्बन्ध रखती है। नन्दगांव की वृश्चिक राशि का है इसलिये जान जोखिम और खतरे वाले काम करने के लिये तथा मौत जैसे कारण पैदा करने के लिये माना जाता है। वृंदावन वृष और तुला के मिश्रण का रूप है इसलिये धन सम्पत्ति और प्रेम सम्बन्ध शुक्र से मिलते है। बरसाना भी श्री राधा के लिये तथा सत्यभामा कुम्भ राशि के लिये जो मित्र के रूप मे ही अपने कारणो को आजीवन प्रस्तुत करती रही। रुकमिणी जो तुला राशि की होकर और राधा भी तुला राशि की होकर अपने को मित्र तथा प्रेम के रूप मे प्रस्तुत करने के बाद श्रीकृष्ण की शक्ति के रूप मे साथ रही। अक्षर कृ में मिथुन और तुला है और अक्षर कं में मिथुन और वृश्चिक का रूप शामिल है,मिथुन तुला की धर्म और भाग्य के साथ साथ पूज्य बनाने के लिये मानी जाती है जबकि मिथुन और वृश्चिक षडाष्टक योग का निर्माण करने के लिये तथा शत्रुता मौत वाले कारण पैदा करने के लिये जासूसी अवैध्य रूप से धन प्राप्त करने के लिये केवल भौतिक सुखो को भोगने के लिये अहम मे आकर अपने को ही भगवान समझने के लिये मानना भी एक प्रकार से माना जा सकता है। यही बात यमुना जी के लिये भी जानी जा सकती है वृश्चिक सिंह और वृश्चिक राशि का मिश्रण भी यमुना जी के लिये अपनी गति को प्रदान करता है चौथे भाव में शनि केतु का रूप पानी के स्थान पर एक काली लकीर या जो पूर दिशा मे जाकर राहु यानी समुद्र से मिले। आदि बातो से भी माना जा सकता है।
हरिवंश पुराण मे भगवान श्रीकृष्ण सहित गुरु का कारण प्रस्तुत किया गया है और सम्पूर्ण ज्योतिष की जानकारी जीव के रूप मे उपस्थित करने के लिये बतायी गयी है। इसी प्रकार से महाभारत पुराण के तेरह पर्व एक लगन और बाकी के बारह भाव प्रस्तुत किये गये है जो ज्योतिष से सटीक रूप से मिलते है। पांच पांडव और छठे नारायाण यानी श्रीकृष्ण भगवान पांच तत्व और एक आत्मा के रूप मे आधयत्मिक रूप मे तथा पांच तत्व और एक आत्मा के रूप मे द्रोपदी के रूप मे जो पांच तत्व का भार ग्रहण करती है के प्रति भी आस्था रखना ज्योतिष के रूप मे माना जाता है। सौ कौरव दूसरे शुक्र और बारहवे सूर्य की कल्पना को प्रस्तुत करते है। वही शनि केतु कौरवो के लिये कीडे मकौडे के रूप मे प्रस्तुत करता है तो कुन्ती के विवाह से पहले के पुत्र कर्ण को छठे भाव के शनि केतु के रूप मे प्रस्तुत करता है,जो पांचो तत्वो के मिश्रण का संयुक्त रूप था और बारहवे सूर्य की निशानी था,कहा जाता है कि कुंती ने सन्तान प्राप्ति के मंत्र को क्वारे मे सूर्य की साधना करने से अंजवाया था भगवान सूर्य उपस्थित हुये और कुंती को पुत्र प्राप्ति के लिये वर दे गये तथा कानो के कुंडल और कवच कुंती को दे गये। विवाह नही होने के कारण और क्वारे में सन्तान को प्राप्त करने के कारण कर्ण को यमुना मे मय कुंडल और कवच के बहा दिया गया जो किसी मल्लाह ने प्राप्त करने के बाद उन्हे पाला और सूत पुत्र के नाम से कर्ण को जाना जाने लगा। यही चौथे भाव का शनि केतु यानी केतु पतवार और शनि पानी का वाहन यानी नाव के रूप मे भी समझा जा सकता है।
इस प्रकार से समझा जा सकता है कि ज्योतिष और भगवान श्रीकृष्ण की कथा मे केवल उनकी कथा को प्रस्तुत करने के बाद जो भी कारण पांच तत्व और एक आत्मा के साथ पैदा होते है उन्हे वृहद रूप मे वर्णित किया गया है। यह कथाये इसलिये बनायी गयी थी कि पुराने जमाने मे लिखकर सुरक्षित रखने का कोई साधन नही था और कथा के रूप मे गाथा हमेशा चलती रहती थी कोई इस गाथा को भूल नही जाये इसलिये ही भागवत पुराण की रचना की गयी थी और नवग्रह तथा जीवन के सभी ग्रहों की शांति के लिये लोग समय समय पर भागवत कथा का आयोजन करवाते थे।